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रहमत व मग़फ़िरत की रात — शबे बरात

लेखकः मोहम्मद नासिर मनेरी
मनेरी फाउन्डेशन, दिल्ली
इमेलः nasirmaneri92@gmail.com
गर चाहते हो बख़शिश आई शबे बरात|
कर लो ज़रा सी कोशिश आई शबे बरात||
नासिर मनेरी की है ये अर्ज़ दोस्तो!
करवा लो रब से बख़शिश आई शबे बरात||

शबे बरात की फज़ीलतः

शाबान  के महीने की बहुत फ़ज़ीलत आई है, हुज़ूर ने इसे अपना महीना क़रार दिया है, ख़ास कर इसकी पँद्रहवीं रात (यानी शबे बरात) की बहुत फ़ज़ीलत आई है| अल्लामा अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी अलैहिर्रहमा समेत बड़े बड़े मुहक़्क़िक़ों ने इस पर किताबें लिखीं और इमाम इब्ने माजा जैसे मुहद्दिस समेत बहुत से हदीस के इमामों ने इसके लिए बाब क़ायम किया| यहाँ सही हदीसों की रोशनी में इसके फ़ज़ाइल व मामूलात पेश किए जा रहे हैं :
इमाम इब्ने माजा सही सनद के साथ हज़रत अली बिन अबी तालिब से रिवायत करते हैं कि हुज़ूर ने फरमायाः जब शाबान की पँद्रहवीं रात आ जाए तो उस रात को इबादत में गुज़ारो और उस के दिन में रोज़ा रखो, क्योंकि अल्लाह तआला सूरज डूबने के वक़्त से आसमान पर नुज़ूल फरमाता है और एलान करता है कि है कोई बख़शिश चाहने वाला कि मैं उसे बख़्श दूँ? है कोई रोज़ी माँगने वाला कि उसे रोज़ी दूँ? है कोई बीमार कि उसे शिफा दूँ? है कोई ऐसा? है कोई वैसा? और ये फजर के वक़्त तक फरमाता है| (सु-नने इब्ने माजा,हदीसः1388) लिहाज़ा जो भी अल्लाह की रहमत और बख़शीश व मग़फिरत चाहता हो उसे चाहिए कि ये रात इबादत में गुज़ारे और इस के दिन में रोज़ा रखे|

शबे बरात की नमाज़ः

मग़रिब की नमाज़ पढ़ने के बाद 6 रकअतें 2-2 कर के पढ़ें| पहली 2 रकअतों से पहले यूँ दुआ करेः ऐ अल्लाह! इन 2 रकअतों की बरकत से मुझे दराज़िए उम्र बिलख़ैर अता फरमा| दूसरी 2 रकअतों से पहले यूँ दुआ करेः ऐ अल्लाह! इन 2 रकअतों की बरकत से मुझे बलाओं से महफूज़ फरमा| तीसरी 2 रकअतों से पहले यूँ दुआ करेः ऐ अल्लाह! इन 2 रकअतों की बरकत से मुझे अपने अलावा किसी का मुहताज ना रख| हर रकअत में सू-रए फातिहा के बाद सू-रए इख़लास (क़ुल हुवल्लाह) 3 बार और हर दो रकअतों के बाद सू-रए इख़लास 21 बार पढ़ें| सू-रए यासीन भी 1 बार पढ़ या सुन लें, और हर सू-रए यासीन के बाद ये दुआ पढें :
अल्लाहुम-म या ज़ल-मन्नि वला युमन्नु अलैह, या ज़ल-जलालि वल-इकराम, वया ज़त्तौलि वल-इनआम, ला इला-ह इल्ला अन्-त ज़हरुल्लाजीन, वजारुल मुस-तजीरी-न वअमानुल ख़ाइफ़ीन, अल्लाहुम्-म इन कुन-त क-तब-तनी इन्-द-क फ़ी उम्मिल किताबि शक़िय्या, औ महरूमन औ मतरूदन औ मुक़तरन अलय्-य फ़िर्रिज़्क़, फ़म्हुल्लाहुम्-म बिफ़ज़लि-क शक़ावती वहिरमानी वतरदी वक़ता-र रिज़क़ी, वअसबितनी इन-द-क फ़ी उम्मिल किताबि सईदम मरज़ूक़म मुवफ़्फ़क़ल लिल ख़ैरात, फ़इन्न-क क़ुल्-त व क़ौलुकल हक़्क़ु फ़ी किताबिकल मुनज़्ज़ल, अला लिसानि नबिय्यिकल मुरसल, “यम्हुल्लाहु मा यशाउ वयुसबितु वइन्दहू फ़ी उम्मिल किताब” इलाही बित्तजल्लिल आज़म, फ़ी लैलतिन निस्फ़ि मिन शहरि शअबानल मुकर्रम, अल्लज़ी युफ़रक़ु फ़ीहा कुल्लु अमरिन हकीमिँव वयुबरम, अन तकशिफ़ अन्ना मिनल बलाइ वल-बलवाइ मा नअलमु वमा ला नअलम, वअन-त बिही आलम, इन्न-क अन्तल अअज़्ज़ुल अकरम, वसल्लल लाहु त्आला अला सय्यिदिना मुहम्मदिँव वअला आलिहि वअसहाबिही वसल्लम, वलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आ-लमीन|
(मा ज़ा फ़ी शअबान, पेजः105,अज़ अल्लामा अलवी मालिकी मक्की अलैहिर्रहमा)

शबे बरात का रोज़ाः

शाबान के महीने और ख़ास तौर से शबे बरात के रोज़े की बड़ी फ़ज़ीलत आई है| इमाम नसई सही सनद के साथ हज़रत उसामा बिन ज़ैद से रिवायत करते हैं कि उन्होंने हुज़ूर से अर्ज़ कीः या रसूलल्लाह! जिस क़दर आप शाबान में रोज़े रखते हैं किसी और महीने में नहीं रखते? हुज़ूर ने फरमायाः ये ऐसा महीना है, जो रजब और रमज़ान के बीच में आता है और लोग इस से ग़फलत बरतते हैं, हालाँकि इस महीने में पूरे साल के अमल अल्लाह को पेश किये जाते हैं लिहाज़ा मैं चाहता हूँ कि मेरा अमल रोज़ादार होने की हालत में उठाया जाए| (सु-नने नसई, हदीसः2357)
लिहाज़ा इस महीने में ज़्यादा से ज़्यादा रोज़े रखें, ख़ास कर शबे बरात का रोज़ा ज़रूर रखें|

शबे बरात का वज़ीफ़ाः

शबे बरात के मुक़द्दस मौक़े पर यह दुआ ज़यादा से पढ़ी जाए, साहिबे मिशकात अल्लामा तबरेज़ी फरमाते हैं कि यह दुआ हुज़ूर से साबित है|
अल्लाहुम्म इन्न-क अफ़ुव्वन तुहिब्बुल अफ़्-व फ़अफ़ू अन्नी|
(मिशकात शरीफ, 1/183) यह दुआ ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ें |

शबे बरात का हलवाः

शबे बरात के पुर बहार मौक़े पर हलवा या फातिहा व ईसाले सवाब के लिए दूसरे खाने पकाना ना तो फ़र्ज़ या वाजिब है और ना ही नाजायज़ व हराम बल्कि दूसरे खानो की तरह इसे पकाना भी एक जायज़ और मुबाह काम है और अगर इस नेक नियती के साथ हो कि अच्छा खाना पका कर ग़रीबों, मिस्कीनों और ज़रूरत मंदों को खिलाए तो ये सवाब का काम है| और हल्वा (शीरीनी, मिठाई, मीठी चीज़) चूँकि हुज़ूर पसंद फरमाया करते थे जैसा कि हदीसे पाक में है इमाम बुख़ारी सही सनद के साथ हज़रत आएशा से रिवायत करते हैं कि हुज़ूर हल्वा (मीठी चीज़) और शहद पसंद करते थै|(बुख़ारी शरीफ, हदीसः5268)
लिहाज़ा इसे पका कर बुज़र्गों के नाम ईसाले सवाब करना (फातिहा दिलाना) भी जायज़ काम है और इसे हराम या शिर्क कहना अक़्ल व शरीअत के ख़िलाफ है|

क़ब्रिस्तान जानाः

कब्रों की ज़ियारत के लिए जाना सुन्नत है| हुज़ूर ने क़ब्रों की ज़ियारत की है और इस का हुक्म भी दिया है| इस के फायदे और बरकतें भी बताई हैं, हदीसे पाक में इमाम मुस्लिम सही सनद के साथ हज़रत अबू हुरैरा से रिवायत करते हैं कि हुज़ूर ने फरमायाः क़ब्रों की ज़ियारत करो इसलिए कि वो दुनिया से बे रग़बत करती और आख़िरत की याद दिलाती है| (मुस्लिम शरीफ, हदीसः2148)
जब क़ब्र पर जाएँ तो पहले सलाम पेश करें, इमाम तिर्मिज़ी सही सनद के साथ हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत करते हैं कि हुज़ूर जब मदीने के क़ब्रिस्तान से गुज़रे तो यूँ  कहाः अस्सलामो अलैकुम या अहलल क़ुबूर, यग़फ़िरुल्लाहु लना वलकुम, अन्तुम सलफुना व नहनु बिलअसर| (तिर्मिज़ी शरीफ, हदीसः1055)
फिर पाइँती की जानिब से जा कर मय्यत के चेहरे के सामने खड़े हों और फातिहा पढ़ें| (दुर्रे मुख़तार,3/179)

आतिशबाज़ीः

शबे बरात जहन्नम की भड़कती आग से बराअत(यानी छुटकारा पाने) की रात है मगर अफसोस सद करोड़ अफसोस कि इस रात बहुत से मुसलमान जहन्नम की  आग से छुटकारा हासिल करने की बजाय ढ़ेर सारे रूपये पैसे ख़र्च कर के अपने लिए आतिशबाज़ी का सामान खरीदते हैं और ख़ूब पटाख़े वग़ैरा छोड़ कर इस मुक़द्दस रात का तक़द्दुस पामाल करते हैं| जब्कि आतिशबाज़ी (यानी पटाख़े वग़ैरा छोड़ना) हराम हराम सख़्त हराम और जहन्नम में ले जाने वाला काम है|
अल्लाह से दुआ है कि हमें यह रात इबादत में गुज़ारने की तौफ़ीक़ अता फरमाए और घूमने फिरने व पटाख़े छोड़ने से बचने की तौफीक़ अता फरमाए| आमीन

मामूलाते मोहर्रम — हदीसों की रोशनी में


लेखकः मोहम्मद नासिर मनेरी
मनेरी फाउन्डेशन, दिल्ली
इमेलः nasirmaneri92@gmail.com
मोहर्रम की दसवीं तारीख़ जिसे आशूरा कहा जाता है, बहुत ही फ़ज़ीलत वाला दिन है| इसी दिन हज़रत आदम की तौबा कबूल हुई, हज़रत नूह की कश्ती जूदी पहाड़ पर पहुँची, हज़रत इब्राहीम पैदा हुए, आप को ख़लीलुल्लाह का लक़ब मिला और नमरूद की आग से छुटकारा पाया| इसी दिन हज़रत अय्यूब की बलाएँ ख़त्म हुईँ हज़रत इद्रीस व हज़रत ईसा आसमानों पर उठाए गए, इसी दिन बनी इस्राईल के लिए दरिया फट गया और फ़िरऔन लश्कर समेत दरिया में डूब गया,और हज़रत मूसा को फिरऔन से छुटकारा मिला, इसी दिन हज़रत यूनुस मछली के पेट से सलामती के साथ बाहर आए| इसी दिन इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मैदाने करबला में शहादत का जाम पी कर हक़ का झन्डा ऊँचा किया| (मा स-ब-त मिनस्सुन्नह, पेजः17, ग़ुनयतुत्तालिबीन, पेजः87) इस फज़ीलत व अहमियत वाले दिन में किये जाने वाले कुछ नेक काम यहाँ बताए जा रहे हैः

शबे आशूरा की नफ्ल नमाज़ः

आशूरा की रात में चार रक्अत नफ्ल नमाज़ इस तरह पढ़िएः हर रक्अत में अलहम्दु के बाद आयतुल कुर्सी एक बार और सूर-ए इख़लास (क़ुल हुवल्लाह) तीन-तीन बार पढ़िए और नमाज़ के बाद 100 बार सूर-ए इख़लास पढ़िए, इंशाअल्लाह गुनाहों से पाकी हासिल होगी और जन्नत में बे-शुमार ने-मतें मिलेंगी|

यौमे आशूरा का नफ्ल रोज़ाः

आशूरा के रोज़े की बहुत फज़ीलत आई है| हदीसे पाक में है कि रसूले पाक जब मदीना तशरीफ लाए तो यहूदियों को इस दिन रोज़ा रखते देखा, पूछाः रोज़ा क्यों रखते हो? उन्हों ने कहाः इस दिन हज़रत मूसा और उनकी क़ौम को फिरऔन से छुटकारा मिला था इसी लिए शुक्राने के तौर पर रोज़ा रखते हैं| हज़ूर ने फरमाया हज़रत मूसा को हम तुम से ज़्यादा मानते हैं, फिर हज़ूर ने ख़ुद भी रोज़ा रखा और उस का हुक्म भी दिया (बुख़ारी शरीफ, 1 / 656 हदीस नः2004) रसूले पाक ने फरमायाः आशूरा का रोज़ा एक साल के गुनाह मिटा देता है| (मुस्लिम शरीफ, 1 / 590 हदीस नः1162) नवीं और दसवीं दोनों दिन रोज़ा रखना चाहिए और अगर ना हो सके तो आशूरा ही के दिन रोज़ा रखिए|

यौमे आशूरा के नेक कामः

आशूरा के दिन ये काम करना मुस्तहब हैः रोज़ा रखना| सदक़ा करना| नफ्ल नमाज़ पढना| एक हज़ार सू-रए इख़लास पढना| यतीमों के सर पर हाथ फेरना| अपने अहलो अयाल के रिज़्क़ में कुशादगी करना| ग़ुस्ल करना| सुरमा लगाना| नाख़ुन तराशना| मरीज़ों की बीमार-पुर्सी करना| दुश्मनों से मिलाप करना| दुआए आशूरा पढ़ना वग़ैरह| रसूले पाक ने फरमाया कि जो आशूरा के दिन बाल-बच्चों के खाने पीने में ज़्यादा कुशादगी करेगा यानी ज़्यादा खाना तैयार करा कर ख़ूब भर पेट खिलाएगा अल्लाह पाक साल भर तक उसके रिज़्क़ में ख़ूब ख़ैरो बरकत अता फरमाएगा| (मा स-ब-त मिनस्सुन्नह, पेजः17)

मुहर्रम की मज्लिसें :

मुहर्रम के महीने में ख़ास तौर से आशूरा के दिन मज्लिस या जलसे कराना और सही रिवायतों के साथ करबला के शहीदों की बड़ाइयाँ और करबला के वाकेआत व हालात बयान करना जायज़ और सवाब का काम है हदीसे पाक में है कि जिन मज्लिसों में नेक लोगों का ज़िक्र हो, वहाँ रहमत बरसती है, और करबला के वाकेआत में चूँ कि सब्र, बर्दाश्त और अल्लाह व रसूल की फरमाँ बरदारी की बेहतरीन मिसाल है, इसलिए उन्हें सुनना सुनाना सवाब का काम है| इसी तरह मीलाद शरीफ और ग्यारहवीं की महफिलें और जलसे करना ये सब जायज़ व मुस्तहब और सवाब के काम हैं| इन्हें ख़ुलूस व मोहब्बत से करना चाहिए और इनमें अदब से हाज़िर होना चाहिए| इन महफिलों से लोगों को रोकना गुमराहों का तरीक़ा है|

मुहर्रम की फातिहा :

मुहर्रम के दस दिनों तक ख़ास तौर से आशूरा के दिन शरबत पिलाकर, खाना खिलाकर, शीरिनी पर या खिचड़ा पका कर शुहदाए करबला की फातिहा दिलाना और उनकी रूहों को सवाब पहुँचाना ये सब जायज़ और सवाब के काम हैं और इन सब चीज़ों का सवाब यक़ीनन उनकी रूहों को पहुँचता है और इस फातिहा या ईसाले सवाब के मसअले में हनफ़ी, शाफेई, मालिकी, हंबली अहले सुन्नत के चारों इमामों का इत्तेफाक़ है| (शरहुल अक़ाइदिन नसफिय्यह, पेजः172)

दुआए आशूरा :

दसवीं मुहर्रम को दुआए आशूरा पढ़ने से उम्र में ख़ैरो बरकत और ज़िंदगी में फलाहो नेमत हासिल होती है| दुआ ये हैः
“या क़ाबि-ल तौबति आ-द-म यौ-म आशूरा, या फ़ारि-ज कर्बि ज़िन्नूनि यौ-म आशूरा, या जामि-अ शम्लि याक़ू-ब यौ-म आशूरा, या सामि-अ दअवति मूसा व हारू-न यौ-म आशूरा, या मुग़ी-स इब्राही-म मिनन्नारि यौ-म आशूरा, या राफि-अ इद्री-स इ-लस्समाई यौ-म आशूरा, या मुजी-ब दअवति सालि-ह फिन्नाक़ति यौ-म आशूरा, या नासि-र सैय्यिदिना मुहम्मदिन यौ-म आशूरा, या रहमानद्दुनिया वल आख़िरति व रही-महुमा सल्लि अला सय्यिदिना मुहम्मदिन व अला आलि सय्यिदिना मुहम्मदिन व सल्लि अला जमीइल अम्बियाइ वल मुर्सलीन, वक़्ज़ि हाजातिना फ़िद्दुनिया वल आख़िरति व अतिल उम-रना फी ताअति-क व महब्बति-क व रिज़ा-क व अहयिना हयातन तय्यि-बतन व तवफ़्फ़ना अलल ईमानि वल इस्लाम बिरहमति-क या अरहमर राहिमीन अल्लाहुम्म बिइज़्ज़िल ह-स-नि व अख़ीहि व उम्मिही व अबीहि व जद्दिही व बनीहि फ़र्रिज अन्ना मा नहनु फ़ीह|”
फिर सात बार ये पढ़िएः
“सुब्हानल्लाहि मिलअल मीज़ानि व मुन-तहल इल्मि व मब्लग़र्रिज़ा व ज़ि-नतिल अर्शि ला मल-ज-अ मिनल्लाहि इल्ला इलैहि सुब्हानल्लाहि अ-द-दश्शफ़्इ वल वत्रि व अ-द-द कलिमातिल लाहित ताम्माति कुल्लिहा नस-अलु-कस सलाम-त बिरह मति-क या अरहमर्राहिमीन, वहु-व हसबुना व निअमल वकील, निअमल मौला व निअमन नसीर, वला हौ-ल वला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाहिल अलिय्यिल अज़ीम, व सल्लल्लाहु तआला अला सय्यिदिना मुहम्मदिन व अला आलिही व सहबिही व अलल मोमिनी-न वल मोमिनाति वल मुसलिमी-न वल मुसलिमाति अ-द-द ज़र्रातिल वुजूद, व अ-द-द मालूमातिल्लाहि वलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन”

मुहर्रम का खिचड़ा :

आशूरा के दिन खिचड़ा पकाना ना तो फ़र्ज़ या वाजिब है ना ही नाजायज़ व हराम| बल्कि एक रिवायत में है कि ख़ास आशूरा के दिन खिचड़ा पकाना हज़रत नूह अलैहिस सलाम की सुन्नत है| तूफ़ान से छुटकारा पाकर जब आप की कश्ती जूदी पहाड़ पर ठहरी तो आशूरा का दिन था| आप ने कश्ती से तमाम अनाजों को बाहर निकाला तो मटर, गेहूँ, जौ, मसूर, चना, चावल, प्याज़ वग़ैरह सात क़िस्म के अनाज मौजूद थे| आप ने उन्हें एक ही हाँडी में मिला कर पकाया| अल्लामा क़लयूबी लिखते हैं कि “मिस्र में जो खाना आशूरा के दिन तबीख़ुल हबूब (खिचड़ा) के नाम से पकाया जाता है इसकी दलील यही है” (किताबुल क़लयूबी, फ़ाइदतु फ़ी यौमि आशूरा, पेजः136)

मुहर्रम में क्या नहीं करना चाहिए :

मुहर्रम में सिर्फ़ इतना है कि इमाम हुसैन और शुहदाए करबला रज़ियल्लाहु अनहुम के रौज़ों की तस्वीर या नक़्शा बना कर रखना और देखना तो जायज़ है, जिस तरह काबा शरीफ, मदीना शरीफ और नालैन शरीफ़ वग़ैरह की तस्वीरें या नक़्शे रखना जायज़ है| लेकिन इसके साथ जो बुरी रसमें चल पड़ी हैं वो ज़रूर ना जायज़ व हराम हैं जैसेः हर साल हज़ारों, लाखों रूपयों के ताज़िये बना कर पानी में डुबो देना या ज़मीन में दफ़्न कर देना, ढ़ोल ताशे, डंके और डी.जे. के साथ नाचना, ताज़ियों को अखाड़े और बाजे के साथ गली गली घुमाना, इमाम बाड़े बनाना, झंडे निकालना, ताज़ियों और झंडों की मन्नतें माँगना, ताज़ियों को बनावटी करबला ले जाना, शराब और गाँजा पीकर अखाड़ों में नाचना और करतब दिखाना, सड़कों पर खाने पीने के सामान लुटाकर बर्बाद करना वग़ैरह वग़ैरह यह सब नाजायज़ व हराम हैं, इन से तौबा कर के ख़ुद भी इन हराम कामों बचना और दूसरों को बचाना हर मुसलमान पर ज़रूरी है| इसी तरह ताज़ियों का जुलूस देखने के लिए औरतों का बेपर्दा घरों से निकलना और मर्दों की भीड़ में जाना ये भी नाजायज़ और गुनाह है|
बड़े अफसोस की बात है कि आज हम अपने आप को हुसैनी तो ज़रूर कहते हैं लेकिन तरीक़ा हम ने यज़ीदियों का अपना रखा है| इमाम हुसैन को शहीद करने और क़फ़िला लूटने के बाद जो काम यज़ीदियों ने किया था वो आज हम करने लगे हैं| ज़रा दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि कल क़यामत के दिन अगर इमाम हुसैन के नाना जान ने कहा कि मेरे नवासे को शहीद करने और क़ाफ़िला लूटने के बाद जश्न तो यज़ीदियों ने मनाया था तुम ने भी उन्हीं का तरीक़ा अपना लिया??? जाओ आज तुम्हारा भी वही हाल होगा जो यज़ीदियों का होगा… तो उस वक़्त क्या कीजिएगा??? इसीलिए आज भी वक़्त है यज़ीदियों का तरीक़ा छोड़कर हुसैनी तरीक़ा अपना लीजिए| वरना महशर में रोना पड़ेगा|
अल्लाह पाक हमें अच्छी बातों पर अमल की तौफ़ीक़ दे|

मामूलाते ईद-उल-अज़हा और मसाइले क़ुर्बानी


लेखकः मोहम्मद नासिर मनेरी
मनेरी फाउन्डेशन, दिल्ली
इमेलः nasirmaneri92@gmail.com
अल्लाह पाक ने हमें तीन ईदों का तोहफा दिया| ईद मीलाद-उन-नबी (ﷺ) ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अज़हा| ईद मीलाद-उन- नबी (ﷺ) ईदों की ईद है कि इसी दिन हज़रत मोहम्मद (ﷺ) का जन्म हुआ| ईद उल फित्र रमज़ान की इबादतों के बाद अल्लाह पाक हमें पुरस्कार के रूप में प्रदान करता है और ईदु-उल-अज़हा को हम हज़रत इब्राहीम (علیہ السلام) की यादगार के रूप में मनाते हैं| यहाँ ईद-उल-अज़हा के कुछ मसअले बयान किए जा रहे हैं|

तकबीरे तशरीक:

नौवीं ज़िलहिज्जा की सुबह से तेरहवीं की अस्र तक हर पंज-गाना फर्ज़ नमाज़ के बाद जो मुस्तहब जमाअत के साथ पढ़ी गई हो, एक बार जोर से तकबीर कहना वाजिब है और तीन बार बेहतर| इसे तकबीरे तशरीक कहते हैं, वह यह है:
“अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर ला इला ह इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर वलिल्लाहिल हम्द”
(तनवीर-उल-अबसार, भागः 3, पेजः 71-74)

ईद-उल-अज़हा के मुसतहब्बात:

बक़राईद के दिन ये चीजें मुस्तहब हैं: बाल कटवाना, नाखुन काटना, स्नान करना, मिसवाक करना, अच्छे कपड़े पहनना, खुशबू लगाना, ईदगाह इतमीनान और वक़ार के साथ पैदल जाना, एक रास्ते से जाना और दूसरे से वापस आना, जाने से पहले कुछ न खाना| रास्ते में जोर से तकबीर कहना| खुशी प्रकट करना और खूब दान करना आदि|
(फतावा हिन्दिया,1/149, दुर्रे मुखतार, 3/54 आदि)

ईदुल अज़हा की नमाज़ का तरीक़ा:

पहले यूँ नीयत करें “नीयत की मैं ने दो रकअत नमाज़ वाजिब ईद-उल-अज़हा की छह अधिक तकबीरों के साथ अल्लाह के लिए पीछे इमाम के मुंह मेरा काबे की तरफ अल्लाह अकबर” और हाथ बाँधकर सना पढ़ें| फिर तीन तकबीरें कहें| हर तकबीर में हाथ कानों तक उठा कर छोड़ दें| तीसरी तकबीर के बाद हाथ बाँध लें| फिर इमाम साहब किराअत करेंगे, मुक़तदी सुनें| दूसरी रकअत में क़िराअत खत्म कर के तीन तकबीरें कहें| हर तकबीर में हाथ कानों तक ले जाएँ और छोड़ दें, छौथी तकबीर कहकर रुकू करें| चौथी तकबीर में हाथ न उठाएँ न बांधें| फिर दूसरी नमाज़ों की तरह नमाज़ पूरी करें| नमाज़ के बाद खुतबा सुनें|

क़ुर्बानी की फज़ीलत :

क़ुर्बानी इस्लाम का एक शिआर है, जिसकी बहुत फज़ीलत और अहमियत है| रसूल पाक ﷺ को क़ुर्बानी का आदेश दिया गया| अल्लाह पाक ने कहा: अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ो और क़ुरबानी करो|
(सूरे कौसर, आयत: 2)
हदीस में इसकी बड़ी फज़ीलत आई है| इसके करने पर सवाब और छोड़ने पर अज़ाब है| रसूले पाक ﷺ ने फरमाया: क़ुर्बानी के दिनों में इंसान का कोई अमल अल्लाह पाक के पास क़ुर्बानी करने से अधिक प्यारा नहीं और वह जानवर क़्यामत के दिन अपने सींगों, बालों और खुरों के साथ आएंगे| और क़ुर्बानी का खून जमीन पर गिरने से पहले अल्लाह पाक के पास स्वीकृति के स्थान पर पहुँच जाता है तो इसे खुश दिली से करो|
(तिर्मिज़ी शरीफ, 3/162, हदीस संख्या: 1498)
दूसरी हदीस में है: जिसे क़ुर्बानी करने की हैसियत हो और क़ुर्बानी न करे वह हमारे ईदगाह के पास न आए|
(सुनने इब्ने माजा 3/529, हदीस संख्या: 3123)

क़ुर्बानी के मसअले :

(1) क़ुर्बानी हर मुसलमान, मुकल्लफ़, आज़ाद, मुक़ीम, मालिके निसाब पर वाजिब है|
(2) मालिके निसाब वह है जिसके पास हाजते असलिया के अलावा साढ़े बावन तोला (653.184 ग्राम) चांदी या साढ़े सात तोला (93.312 ग्राम) सोना या इतनी क़ीमत की कोई चीज़ हो|
(3) हाजते असलिया वह चीज़ है, जो ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए ज़रूरी है| जैसे: मकान आदि|
(4) क़ुर्बानी वाजिब होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं महिला पर भी वाजिब है|
(5) घर में जितने लोग मालिके निसाब हैं सभी पर अपनी ओर से क़ुर्बानी वाजिब है|
(6) मालिके निसाब अगर किसी दूसरे के नाम से जैसे रसूल पाक ﷺ या किसी बुजुर्ग या किसी मरहूम के नाम से करना चाहे तो उसके लिए दूसरी क़ुर्बानी करनी होगी|
(7) मालिके निसाब जब तक निसाब का मालिक है उस पर हर साल क़ुर्बानी वाजिब है|
(8) मालिके निसाब ने अगर क़ुर्बानी की मन्नत मानी तो उस पर दो क़ुर्बानियाँ वाजिब हो गईं| एक वह जो उस पर वाजिब है और दूसरी मन्नत की वजह है| और दो या दो से अधिक की मन्नत मानी तो जितनी की मन्नत मानी सब वाजिब हैं|
(9) बालिग़ लड़कों या पत्नी की ओर से क़ुर्बानी करना चाहें तो उनसे अनुमति लेनी होगी| बिना अनुमति के उनकी तरफ से क़ुर्बानी नहीं होगी|
(10) क़ुर्बानी के दिनों में क़ुर्बानी ही ज़रूरी है, उसकी जगह कोई दूसरी चीज नहीं हो सकती, यानी क़ुर्बानी के बदले उसकी क़ीमत सदक़ा कर देना काफी नहीं|
(11) क़ुर्बानी का समय दसवीं ज़िलहिज्जा की सुबह से बारहवीं की अस्र तक है|
(12) जहाँ ईद की नमाज़ होती हो वहाँ नमाज़ से पहले क़ुर्बानी सही नहीं|
(13) क़ुर्बानी के लिए ज़रूरी है कि ऊँट: पाँच साल, गाय, बैल, भैंस: दो साल और बकरा एक साल का हो| इससे एक दिन का भी कम हो तो उसकी क़ुर्बानी नहीं होगी|
(14) क़ुर्बानी का जानवर बे-ऐब हो, वरना अगर कान, पूँछ एक तिहाई से अधिक कटे हों, सींग जड़ से टूटी हो तो ऐसे जानवर की क़ुर्बानी जाइज़ नहीं| इसी तरह कोई जानवर इतना कमजोर है कि क़ुर्बान-गाह तक खुद नहीं पहुँच सकता या लंगड़ा है या खुजली की बीमारी है, जो मांस तक पहुँच चुकी है तो उसकी क़ुर्बानी नहीं होगी|
(15) क़ुर्बानी का जानवर खरीदने के बाद अगर लंगड़ा हुआ या कोई विश्वसनीय दोष पैदा हो गया तो अगर जानवर खरीदने वाला अभी भी मालिके निसाब है तो उस पर नया जानवर खरीद कर क़ुर्बानी करना वाजिब है|
(16) एक जानवर में जितने लोग शरीक हैं सबका अक़ीदा सही होना चाहिए, अगर उनमें कोई बदमज़हब हो या किसी की नीयत केवल मांस खाने की हो तो किसी की क़ुर्बानी नहीं होगी|
(17) जिस नाम से क़ुर्बानी होनी है उसे चाँद देखकर क़ुर्बानी करने तक बाल और नाखून न काटना और बकराईद के दिन क़ुर्बानी होने तक कुछ न खाना मुस्तहब है, लेकिन उस दिन रोज़े की नीयत से भूखा रहना हराम है|

ज़बह के मसअले :

(18) एक जानवर के सामने दूसरे को ज़बह करना मना है| रात में ज़बह करना मकरूह है| ज़बह के समय तीन रगें काटना और ज़बह से पहले बिस्मिल्लाह अल्लाहु अकबर पढ़ना ज़रूरी है|

गोश्त के मसअले :

(19) क़ुर्बानी का मांस गैर मुस्लिम को देना सही नहीं है| कसाब को मजदूरी के रूप में देना नाजाइज़ है| क़ुर्बानी का मांस अनुमान से बाँटना जाइज़ नहीं बल्कि वजन करके बाँटना ज़रूरी है|

खाल के मसअले:

(20) क़ुर्बानी की खाल या उसे बेच कर उसकी कीमत मदरसा, मस्जिद और हर नेक काम में दी जा सकती है| उसे कसाब को मज़दूरी के रूप में देना जाइज़ नहीं| हदीसे पाक में जो बेचने के लिए मना किया गया है वह अपने लिए बेचना है|

क़ुर्बानी का तरीका:

जानवर को बाएँ पहलू पर इस तरह लिटाएँ कि उसका मुँह काबे की तरफ हो और अपना दाहिना पैर उसके पहलू पर रखकर तेज चाकू से जल्द ज़बह करें और ज़बह से पहले यह दुआ पढ़ें:
“इन्नी वज्जहतु वजहि-य लिल्लज़ी फतरस समावाति वल अर ज़ हनीफौं वमा अ न मिनल मुशरिकीन इ-न्न सलाती व नुसुकी व महया-य व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आ-लमीन ला शरी-क लहू वबिज़ालि-क उमिरतु व अ-न मिनल मुसलिमीन अल्लाहु-म्म ल-क व मिन-क बिस्मिल्लाहि अल्लाहु अकबर”
इसे पढ़ कर ज़बह करें| क़ुर्बानी अपनी तरफ से हो तो ज़बह के बाद यह दुआ पढ़ें|
“अल्लाहु-म्म तक़ब्बल मिन्नी कमा तक़ब्बल-त मिन ख़लीलि-क इब्राहीम व हबीबि-क मोहम्मद ﷺ”
और अगर दूसरे की तरफ से हो तो मिन कहकर उसका नाम लें और बिन कहकर उसके पिता का नाम लें|
(माखूज़ अज़ दुर्रे मुख़तार, तनवीरुल अबसार, फतावा ख़ानिया, फतावा हिन्दिया, बहारे शरीअत वग़ैरह)
अख़ीर में अल्लाह पाक की बारगाह में दुआ है कि मौलाए पाक अपने हबीब पाक (ﷺ) के तुफ़ैल हमें ख़ुलूसे नीयत के साथ क़ुर्बानी करने की तौफ़ीक़ अता फरमाए, रियाकारी और दिखावा से बचाए और हमारी क़ुर्बानियों को अपनी बारगाह में क़बूल करे| (आमीन| या रब्बल आलमीन)

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